
अमेरिका-चीन कृषि समझौता- वाशिंगटन से आई एक बड़ी खबर में पता चला है कि United States Department of the Treasury (अमेरिका का खजाना विभाग) ने खुलासा किया है कि People’s Republic of China अगले तीन वर्षों में हर साल लगभग 2,500 लाख (25 मिलियन) मेट्रिक टन सोयाबीन अमेरिका से खरीदने के लिए तैयार है। यह समझौता अमेरिका-चीन के बीच कृषि-व्यापार को नया मोड़ देने वाला माना जा रहा है। इस समझौते के अंतर्गत चीन ने शुरुआत के तौर पर अमेरिका से 1,200 लाख (12 मिलियन) मेट्रिक टन सोयाबीन इस सीजन से लेकर जनवरी तक खरीदने की सहमति दी है।
अमेरिकी खजाना मंत्री Scott Bessent ने एक टेलीविजन इंटरव्यू में कहा कि “आज हमारी महान सोयाबीन किसानों के लिए यह दिन है — जिन्हें पहले राजनीतिक मोहरे की तरह इस्तेमाल किया गया था — अब वह समय गया, उन्हें आगे समृद्धि मिलेगी।” उन्होंने यह भी कहा कि यह समझौता तीन वर्ष-काल के लिए है और इसका मकसद अमेरिका-चीन कृषि संबंधों को फिर से सामान्य बनाना है।
अमेरिका-चीन कृषि समझौता का महत्व
यह समझौता सिर्फ एक मात्रा-अनुबंध नहीं है, बल्कि वर्षों से चली आ रही अमेरिका-चीन कृषि-व्यापार में तनाव को कम करने का प्रयास भी है। अमेरिका सोयाबीन उत्पादन में वैश्विक स्तर पर अग्रणी है, जबकि चीन इस दाने को आयात-आधारित बड़े पैमाने पर खरीदता रहा है। उदाहरण के लिए, 2024 में चीन ने अमेरिका से लगभग 2,700 लाख (27 मिलियन) मेट्रिक टन सोयाबीन खरीदी थी, जिसकी कीमत लगभग 12.6 बिलियन डॉलर थी।
जब व्यापार-विवाद बढ़े, तो चीन ने कुछ समय के लिए अमेरिकी सोयाबीन आयात को कम कर दिया था, जिससे अमेरिकी किसानों को भारी दबाव महसूस हुआ था। अब यह नया समझौता उस दबाव को कम करने की दिशा में एक संकेत है कि भविष्य में अमेरिकी किसानों के लिए स्थिरता आ सकती है।
अमेरिकी किसानों व चीन-व्यापार को मिलने वाला लाभ
इस समझौते के अमल में आने से अमेरिकी सोयाबीन उत्पादक को कई मायनों में फायदा होगा। पहले यह किसानों के बीच एक चिंता का विषय था कि उनका उत्पादन किसको मिलेगा, और किस कीमत पर बिकेगा। चीन के इस बड़े पैमाने पर खरीद की सहमति ने उन्हें एक तरह का भरोसा दिया है। खजाना मंत्री ने कहा कि “उनका इस्तेमाल राजनीतिक मोहरे के रूप में नहीं होगा” — यह संकेत है कि कृषि-रणनीति स्थिर होगी।
चीन-उपभोक्ता बाजार की दृष्टि से देखें तो, सोयाबीन एक महत्वपूर्ण कृषि फसल है — यह खाद्य पदार्थ, पशु चारा, और तेल उद्योग में प्रयुक्त होता है। इसलिए चीन का ऐसा कदम उसकी समग्र खाद्य एवं पशु-खाद्य सुरक्षा नीति से भी जुड़ा हुआ हो सकता है।
क्या चुनौतियाँ और जोखिम हैं?
हालाँकि यह समझौता उत्साहजनक है, पर इसके अंतर्गत चुनौतियाँ भी मौजूद हैं। पहला, यह अधिशेष नहीं कि चीन तुरंत हर साल 2,500 लाख टन खरीदेगा — यह कहना आसान है, लेकिन लॉजिस्टिक्स, उत्पादन-क्षमता, कीमतें तथा वैश्विक बाजार की स्थिति सब असरकारक होंगे।
दूसरा, सोयाबीन के दामों में उतार-चढ़ाव, अमेरिका-चीन के बीच संभावित नए व्यापार विवाद, और तीसरे देशों (जैसे ब्राज़ील, अर्जेंटीना) द्वारा प्रतिस्पर्धा बढ़ने जैसी स्थितियाँ भी हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ रिपोर्ट्स कहती हैं कि चीन पहले अमेरिकी सोयाबीन से रुख मोड़ चुका था और अन्य आपूर्तिकर्ताओं की ओर गया था।
तीसरा, यह समझौता तीन वर्षों के लिए है — उसके बाद क्या होगा, यह अभी स्पष्ट नहीं है। अगले वर्ष यदि बाजार, उत्पादन या नीति में बदलाव आए, तो यह соглаш्ता अपेक्षित परिणाम न दे सके। इसलिए किसानों तथा व्यापारियों को इस समझौते को “गारंटी” के रूप में न लेना बेहतर होगा बल्कि एक सकारात्मक संकेत के रूप में स्वीकार करना चाहिए।
भारत-दृष्टिकोण से क्या होता है?
वहीं भारत जैसे उभरते कृषि-उत्पादक देश के लिए भी यह अमेरिका-चीन समझौता महत्वपूर्ण है। यदि चीन अमेरिका-सोयाबीन खरीद को बढ़ाता है, तो चीनी खरीद-शक्ति अमेरिकी बाजार की ओर केन्द्रित होगी और अन्य स्रोतों (जैसे भारत) के लिए प्रतिस्पर्धा थोड़ी कम हो सकती है। परन्तु यह स्वतः भारत-सोयाबीन के लिए लाभ का संकेत नहीं है, क्योंकि भारत का सोयाबीन उत्पादन, निर्यात-संरचना, तथा कीमत अमेरिकी बाजार से भिन्न है।
इसके अलावा, वैश्विक सोयाबीन आपूर्ति-श्रंखला में बदलाव आने से भारत के कृषि निर्यात और कच्चे माल की कीमतों पर प्रभाव पड़ सकता है। यदि अमेरिका-चीन की खरीद बढ़ेगी, तो वैश्विक मांग बढ़ेगी — और इससे कीमतें ऊपर जा सकती हैं, जिससे किसानों को लाभ हो सकता है। लेकिन इसके लिए भारत को अपने उत्पादन व निर्यात इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करना होगा।
आगे क्या देखने को मिलेगा?
– इस समझौते की अमल-स्थिति महत्वपूर्ण है: चीन ने कितना वास्तव में सोयाबीन खरीदी है, और यह खरीदी क्या समय-सीमा में पूरी हुई है।
– अमेरिका-चीन के बीच अन्य कृषि व व्यापार समझौतों की दिशा: जैसे दुर्लभ-भूमि (rare-earth) नीति, टैरिफ (शुल्क) आदि – इन सबका प्रभाव सोयाबीन-समझौते पर पड़ सकता है।
– वैश्विक सोयाबीन बाजार में तीसरे देशों (ब्राज़ील, अर्जेंटीना) की भूमिका और उनकी कीमत प्रतिस्पर्धा बढ़ने की स्थिति – यदि वे सस्ते या बेहतर विकल्प बन गए तो अमेरिकी-चीन समझौते को चुनौतियाँ मिल सकती हैं।
– अमेरिकी किसानों की कार्रवाइयां: उत्पादन बढ़ाना, लागत-प्रबंधन सुधारना, बाजार-लक्षित रणनीति अपनाना। इस समझौते से उन्हें अधिक निर्यात-मार्ग मिल सकते हैं।
– भारत सहित अन्य कृषि-उत्पादक देशों को इस बदलाव का विश्लेषण करना होगा तथा अपने किसानों-निर्माताओं को तैयार करना होगा कि वैश्विक मांग-शिफ्ट के भीतर वे कैसे अपनी जगह बना सकते हैं।
निष्कर्ष
कुल मिलाकर, अमेरिका-चीन के बीच यह सोयाबीन समझौता एक सकारात्मक संकेत प्रस्तुत करता है — कृषि-व्यापार में स्थिरता की ओर कदम है। अमेरिका के किसानों के लिए यह उम्मीद जगाता है कि उन्हें दूसरे-मजबूत बाजार नहीं बल्कि एक बड़े व भरोसेमंद बाजार का मिलना तय हो सकता है। वहीं चीन को अपनी खाद्य-सुरक्षा एवं पशु-चारा-सप्लाई चेन को बेहतर तरीके से सुनिश्चित करने का अवसर मिलता है।
हालाँकि “समझौता हो गया = समस्या हल हो गई” ऐसा कहना जल्दबाज़ी होगा। प्रभाव का आकलन तब संभव होगा जब खरीदी संख्या, कीमतें, निर्यात- रूपरेखा आदि तथ्य सामने आएँगे। इसलिए इस समझौते को एक मिशन-स्टार्ट के रूप में लें, न कि पूरी गारंटी के रूप में।


