
भारतीय राजनीति में प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) ऐसा नाम है, जिसने चुनावी रणनीति (Election Strategy) को पूरी तरह बदलकर रख दिया। उन्हें लोग ‘चुनावी चाणक्य’ तक कहने लगे थे। बिहार से लेकर बंगाल, उत्तर प्रदेश से लेकर पंजाब और यहां तक कि आंध्र प्रदेश तक — कई बड़े नेताओं की चुनावी जीत का श्रेय सीधे-सीधे उनके नाम पर डाला गया। लेकिन अब सवाल उठने लगे हैं कि क्या वाकई प्रशांत किशोर उतने ‘बेदाग़’ और ‘ईमानदार’ हैं, जितनी उनकी छवि बनी हुई है? हाल ही में सामने आए कई घटनाक्रमों ने उनकी पॉलिटिकल सफाई पर सवाल खड़े कर दिए हैं और लोग सोशल मीडिया पर इसे लेकर कहने लगे हैं — “Prashant Kishor Exposed”।
प्रशांत किशोर का सफर और चमक
प्रशांत किशोर ने अपने करियर की शुरुआत एक पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट के तौर पर की थी। लेकिन 2011-12 के बाद जब उन्होंने गुजरात चुनाव में नरेंद्र मोदी की टीम के साथ काम किया, तभी उनकी पहचान एक ‘पॉलिटिकल स्ट्रैटेजिस्ट’ के रूप में बनी।
2014 के लोकसभा चुनाव में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने, तो प्रशांत किशोर का नाम अचानक राष्ट्रीय स्तर पर छा गया। इसके बाद उन्होंने कांग्रेस, जेडीयू, टीएमसी, वाईएसआर कांग्रेस, शिवसेना, आम आदमी पार्टी और कई क्षेत्रीय दलों के साथ काम किया। लगभग हर चुनाव में उन्होंने नई-नई रणनीतियाँ बनाई — जैसे ‘चाय पर चर्चा’, ‘दादी के साथ सेल्फी’, ‘बिहार में बिहारी बनाम बाहरी’ और ‘दीदी ओ दीदी’ का पलटवार वाला नैरेटिव।
यानी यह मानना गलत नहीं होगा कि 2014 से लेकर 2021 तक भारतीय राजनीति में जो भी चुनावी क्रांति आई, उसमें प्रशांत किशोर का बड़ा हाथ रहा।
सवालों के घेरे में प्रशांत किशोर
लेकिन अब समय बदलता दिख रहा है। जो प्रशांत किशोर एक समय बड़े-बड़े नेताओं की जीत का आधार माने जाते थे, अब उन्हीं की रणनीतियों पर सवाल खड़े हो रहे हैं।
पहला बड़ा सवाल है — ‘दोहरी राजनीति’ का। कई रिपोर्ट्स में दावा किया गया कि प्रशांत किशोर एक ही समय में दो अलग-अलग दलों को चुनावी सलाह देते हैं। यानी जहां उन्हें फायदा दिखे, वहां वे अपनी सेवाएं देने को तैयार रहते हैं। इससे यह बहस छिड़ गई है कि आखिर उनकी वफादारी किसके साथ है — पार्टी या सिर्फ पैसे के साथ?
दूसरा बड़ा विवाद है — आई-पैक (I-PAC) का। प्रशांत किशोर ने चुनावी कंसल्टेंसी को कॉरपोरेट स्टाइल में ढाल दिया। उनकी कंपनी एक ‘प्रोफेशनल एजेंसी’ की तरह काम करती है, जिसमें हर चुनाव के लिए अलग-अलग पैकेज तय होते हैं। आलोचक कहते हैं कि इससे लोकतंत्र का असली मकसद खत्म हो जाता है और चुनाव केवल ‘मार्केटिंग प्रोडक्ट’ बनकर रह जाते हैं।
जनता के बीच भरोसे पर संकट
शुरुआत में लोग मानते थे कि प्रशांत किशोर राजनीति को साफ और पारदर्शी बनाने आए हैं। लेकिन धीरे-धीरे यह धारणा टूटने लगी।
बिहार में जब उन्होंने जेडीयू के साथ काम किया, तो कुछ ही सालों बाद वे नितीश कुमार के खिलाफ ही बोलते दिखाई दिए। पश्चिम बंगाल में उन्होंने ममता बनर्जी की ऐतिहासिक जीत दिलाई, लेकिन बाद में उनकी नीतियों और आई-पैक की कार्यप्रणाली पर सवाल उठे।
यही नहीं, कई मौकों पर यह भी सामने आया कि प्रशांत किशोर ने विपक्षी नेताओं से मुलाकातें कीं और फिर उनके खिलाफ रणनीतियाँ बनाने में लगे। यही कारण है कि आज सोशल मीडिया पर उन्हें लेकर कहा जा रहा है — “Prashant Kishor Exposed”।
एक्सपोज़ का मतलब: रणनीति या चालाकी?
दरअसल, सवाल यह है कि क्या प्रशांत किशोर की रणनीतियाँ केवल ‘चालाकी’ हैं? क्या वह सच में जनता की आवाज़ को समझते हैं या सिर्फ नेताओं की जीत को सुनिश्चित करने वाले ‘पॉलिटिकल बिजनेसमैन’ बन चुके हैं?
चुनावों में उनका ध्यान हमेशा डेटा एनालिसिस, सर्वे और ग्राउंड लेवल एक्टिविटी पर रहा है। लेकिन कई बार यह भी आरोप लगा कि यह सब केवल दिखावा है और असल में उनके सर्वे और डेटा पहले से तय नैरेटिव को ही प्रमोट करते हैं।
मीडिया और सोशल मीडिया पर हंगामा
आजकल अगर आप ट्विटर या यूट्यूब पर जाएं तो “Prashant Kishor Exposed” ट्रेंड करता हुआ नजर आएगा। तमाम यूट्यूब चैनल्स और न्यूज़ पोर्टल्स पर यह खबरें छाई हैं कि कैसे प्रशांत किशोर की टीम केवल पैसा कमाने और इमेज बनाने का काम करती है।
कई पुराने वीडियो भी वायरल हो रहे हैं, जिनमें प्रशांत किशोर खुद कहते दिखते हैं कि “राजनीति अब सेवा नहीं, बल्कि प्रोफेशन है।” इस बयान को लेकर आलोचक कहते हैं कि यही वजह है कि उनकी रणनीतियाँ सिर्फ नेताओं की कुर्सी बचाने तक सीमित रहती हैं, जनता की भलाई तक नहीं।
भविष्य पर सवाल
अब बड़ा सवाल है कि आने वाले दिनों में प्रशांत किशोर की छवि क्या होगी। क्या वह फिर से खुद को ‘इमेज मेकर’ साबित कर पाएंगे या फिर यह एक्सपोज़ उनकी राजनीतिक जमीन को पूरी तरह हिला देगा?
कुछ जानकार मानते हैं कि प्रशांत किशोर आज भी भारत के सबसे बड़े चुनावी रणनीतिकार हैं और उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता। वहीं दूसरी ओर आलोचक कहते हैं कि उनकी असलियत अब धीरे-धीरे जनता के सामने आ रही है और उनका ‘मैजिक’ खत्म होने लगा है।
निष्कर्ष
Prashant Kishor Exposed की यह बहस सिर्फ एक व्यक्ति की छवि पर सवाल नहीं है, बल्कि भारतीय राजनीति के बदलते चेहरे की तस्वीर भी है। क्या चुनाव अब सच में जनता की आवाज़ हैं या फिर सिर्फ कॉरपोरेट एजेंसियों के मार्केटिंग प्रोजेक्ट?
जो भी हो, इतना तय है कि आने वाले चुनावों में न सिर्फ राजनीतिक पार्टियों की, बल्कि प्रशांत किशोर की साख की भी सबसे बड़ी परीक्षा होने वाली है।