
पश्चिम बंगाल के बांकुरा और पुरुलिया जिलों की सीमा के पास एक छोटा सा शांत गांव है उशारडिहि। इस गांव से लगभग 142 किलोमीटर उत्तर में स्थित है कर्माटार। आज भले ही कर्माटार झारखंड राज्य का हिस्सा है, लेकिन 19वीं सदी में यह बंगाल प्रेसिडेंसी का ही अंग था। यही वह स्थान था जहाँ महान समाज सुधारक और शिक्षाविद ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने अपने जीवन के अंतिम दो दशक बिताए।
इस लेख में कर्माटार सिर्फ एक जगह नहीं, बल्कि स्मृति और संवेदना का केंद्र है। हाल ही में उशारडिहि गांव “बिड्डेसागर” नामक एक नाटक की वजह से चर्चा में आया। “बिड्डेसागर”, दरअसल विध्यासागर का ही प्रेमपूर्ण उच्चारण है — जैसे कोई बहुत अपना, दिल के करीब हो।
उहिनी कोलकाता थिएटर समूह की निर्देशक अद्रिजा दासगुप्ता कहती हैं,
“यह नाम ऐसा लगता है जैसे हम किसी अपने को पुकार रहे हों। और वास्तव में, विद्यासागर हमेशा समाज के उन लोगों के बेहद करीब थे, जिन्हें अक्सर समाज में किनारे पर धकेल दिया जाता है।”
ईश्वर चंद्र विद्यासागर शहर की भीड़ और राजनीतिक हलचल से दूर लगभग 1870 में कर्माटार आए। यह समय संताल विद्रोह के कुछ दशक बाद का था। संथाल समाज उस समय बंगाली जमींदारों और साहूकारों के शोषण की वजह से बंगालियों से बहुत सावधान और संदेहपूर्ण रहता था।
इतिहासकार प्रबीर मुखोपाध्याय बताते हैं कि शुरू में संथाल लोग विद्यासागर से दूर रहते थे। लेकिन धीरे-धीरे, उनके व्यवहार, उनकी उदारता और मानवीय स्पर्श ने सब कुछ बदल दिया।
विद्यासागर और संथाल समाज का रिश्ता
कहा जाता है कि दिनभर भुट्टा (मकई) बेचने के बाद, जब गांव के लोग घर लौटते, तो जो भुट्टा बच जाता, उसे वे विद्यासागर के घर छोड़ देते। शाम तक उनका घर भुट्टों से भर जाता। उसी समय गांव की महिलाएँ और बच्चे उनके घर आते, भुट्टा खाते, और विद्यासागर उन्हें पढ़ना, लिखना और दुनिया समझना सिखाते।
यह शिक्षण सिर्फ किताबों तक सीमित नहीं था। यह था —
मानवता की शिक्षा
सम्मान की शिक्षा
आत्मनिर्भरता की शिक्षा
और शायद यही प्यार और विश्वास मिट्टी में समा गया।
2018 में शुरू हुई एक नई कहानी
संयोग देखिए, वर्षों बाद एक और संवेदनशील मन इसी भूमि की ओर आकर्षित हुआ।
67 वर्षीय भास्वती रे, जिन्होंने अपना पूरा करियर अमेरिका में सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में बिताया, उन्होंने रिटायरमेंट के बाद शहर या विदेश में रहने के बजाय उशारडिहि में बसने का निर्णय लिया।
उन्होंने यहाँ स्थापित किया —
“लेखा पोड़ा पाठशाला”
एक ऐसा स्कूल जहाँ
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बच्चे सरकारी स्कूल के बाद आते हैं
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पढ़ाई की पुनरावृत्ति होती है
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कंप्यूटर, संगीत, योग और कला सीखी जाती है
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संथाली और बंगाली भाषाओं के बीच सीखने का पुल बनाया जाता है
उशारडिहि, जमदोबा, पड़ोसीबोना और कदुरी —
इन चार गांवों के बच्चे यहां शिक्षा लेते हैं।
स्कूल की भाषा संथाली है, जिसे बच्चे “होऱ भाषा” कहते हैं। “होऱ” का अर्थ है — मानव।
कैसे बना नाटक — “बिड्डेसागर”
उहिनी कोलकाता समूह गांव आया और बच्चों के साथ कार्यशाला की।
थिएटर प्रशिक्षक सुबीर मिस्त्री बताते हैं —
“हमने कहानी सुनाई, बच्चे समझते गए। संवाद हमने बंगाली में सुझाए, और बच्चों ने उसे संथाली में बदल दिया। पूरा नाटक संथाली भाषा में हुआ।”
यह नाटक विद्यासागर के एक प्रसिद्ध प्रसंग पर आधारित है —
‘निजेर काज निजे कोरो’
जिसमें रेलवे स्टेशन पर एक दंपत्ति सामान उठाने के लिए कुली ढूंढ रहा होता है, और अंत में जो व्यक्ति मदद करता है — वही खुद विद्यासागर निकलता है।
नाटक में
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रेलगाड़ी
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स्टेशन
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कुली
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यात्रियों
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और स्वयं विद्यासागर
का अभिनय 7 से 12 वर्ष के बच्चों ने किया।
यह सिर्फ नाटक नहीं था।
यह इतिहास को बच्चों की अपनी भाषा और अनुभव में फिर से जीना था।
कर्माटार में आज भी जीवित है विद्यासागर की याद
2012 में विद्यासागर पर शोध करने वाले अमेरिकी प्रोफेसर ब्रायन ए. हैचर जब कर्माटार पहुँचे, तो उन्होंने वही वातावरण देखा जो इतिहास में दर्ज है।
वहाँ था —
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नंदनकानन — विद्यासागर का निवास
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एक चैरिटेबल डिस्पेंसरी
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एक बालिका विद्यालय
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पुराने पेड़, जो शायद खुद विद्यासागर ने लगाए थे
1950 के दशक में यह घर लगभग गुमनाम हो गया था। लेकिन बांग्ला एसोसिएशन और स्थानीय लोगों ने इसे खोजा, सहेजा और आज यह संग्रहालय और सामाजिक केंद्र है।
और अब… एक नया विद्यासागर
उशारडिहि का 7 वर्षीय दिलीप, जो किताबों से अक्सर दूर रहता था, इस नाटक में मुख्य भूमिका में था — विद्यासागर के रूप में।
उसका गर्व और मुस्कान बताती है —
विरासत सिर्फ इतिहास की चीज नहीं होती, वह आत्मा में बस जाती है।



